बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

आखिर कितने हैं ब्लॉग एग्रीगेटर?


मैंने हाल ही में ब्लॉग शुरू किया है और एक सप्ताह पूर्व तक तो मैं ब्लॉग एग्रीगेटर का मतलब भी नहीं जानती थी। अब यह नौबत आ गयी है कि पांच एग्रीगेटरों में पंजीकरण करवा चुकी हूँ जबकी ब्लॉग पर दिखाने को भी मुश्किल से पांच ही पोस्ट हैं! वैसे याद करुँ तो मेरा ब्लॉग लिखने का कारण था स्वान्तः सुखाय: -- केवल हिंदी भाषा से जुड़े रहने के लिए शुरू किया था चिट्ठा; न की फौलोअर, समर्थक या प्रशंसक पाने के लिए। तो फिर ये एग्रीगेटरों से जुड़ने की लत कैसे और क्यों लगी?



अब तो ब्लॉग जगत के नए-पुराने खिलाड़ियों से यही विनम्र अनुरोध है कि कृपया बता दें कि आखिर कितने ब्लॉग एग्रीगेटर हैं हिंदी चिट्ठों के लिए? इन्टरनेट की दुनिया बहुत विशाल है और सर्च इंजन प्रयोग करने पर भी बहुत सी जानकारी छूट जाती है, इसलिए मदद मांग रही हूँ। अब या तो ये गुहार सुन लीजिए या इस लत से छुटकारा पाने का कोई उपाय बता डालिए।

(मैंने अपने लिए ब्लॉग लिखने के कुछ नियम बनाए थे जिनके अनुसार कोई भी पोस्ट दस वाक्यों से कम की नहीं होनी चाहिए। पर यहाँ तो केवल एक छोटा सा प्रश्न पूछना था जो की दरअसल शीर्षक में ही पूछ लिया था। तो दस वाक्य नहीं, यहाँ तो तीन शब्दों में ही काम चल सकता था। अरविन्द जी ने सिखाया कि तुलसीजी ने सुझाया था कि "अर्थ अमित अति आखर थोड़े" पर यहाँ उसका बिलकुल विपरीत है।)



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मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

प्रभाव



किस पर किस का कितना
कब हो जाए, यह कहना
है नामुमकिन सपना

कोई मुलाक़ात, इक बात
न जाने कब किसके साथ
बन जाएँ कैसे हालात --

पुस्तक, चित्र या फिर आइना
बदल के रख दे हर माइना
समझ तो इसको मैं पाई न

कभी-कबार धुंधला एहसास
धीरे से होता आभास
बंधा जाता जीने में आस

प्रश्न चिह्न पर बहुत बड़ा
क्यों सब पे इक-सा न पड़ा?
अपनों को क्यों दिया लड़ा?


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बदले की भावना


मेरे मूल्यांकन में बदले की भावना किसी भी मनुष्य के चरित्र के लिए सबसे अधिक हानीकारक भावनाओं में से एक है। यह वो है जो आपको अन्दर ही अन्दर खाए चली जाती है और आपको बिल्कुल खोकला कर डालती है। ग्यारह या बारह वर्ष की उम्र में अपने पाठ्यक्रम की एक किताब ने मुझे बहुत प्रभावित किया था। किताब में थी ऐलेक्सैन्दर ड्युमास की काउंट ऑफ़ मोंटे क्रिस्टो की संक्षिप्त कहानी। अपने धोखेबाज दोस्तों की साजिश का शिकार इस गाथा का नायक ग़लत इल्जाम में उम्रकैद की सज़ा काटते हुए कई साल कारावास में व्यतीत करता है। वो किस तरह आखिरकार फरार होने में कामयाब होता है और एक नयी पहचान बनाकर फ़िर से सभ्य समाज में अपनी जगह बनाता है - इन वाक्यात का विवरण बहुत ही रोमांचक और प्रभावी है।

ख़ास तौर पर एक बच्चे की प्रचुर कल्पना के लिए तो अत्यधिक रोचक और मंत्र-मुग्ध कर देने वाली कहानी है यह। मजेदार षडयंत्र, खूब सारा जोखिम और उलझी हुई गुथ्थियों से भी भरपूर कहानी है यह।

परन्तु ये सब कारण नही थे इस कहानी के मुझ पर इतना गहरा प्रभाव छोड़ने के। सच तो यह की इस पेचीदा कथा के कारण मुझे शायद पहली बार एहसास हुआ की सही या ग़लत का फ़ैसला करना शायद मानवीय क्षमता के परे है। गुनहकारों को सज़ा देने और अच्छे लोगों व निजी मित्रों को ईनाम देने की शक्ती अगर किसी इंसान को मिल भी जाए तो वह सुकून की गारंटी नही है। नायक डान्टेज़ इतनी खूबसूरती से सफलतापूर्वक अपने सब दुश्मनों से एक-एक करके बदला लेने और अपने पुराने मित्रों की सहायता करने के बावजूद भी खुशी हासिल नही कर पाता। सब कुछ प्लान के मुताबिक होने पर भी और हर ऐशो-आराम का लुत्फ़ उठाने के बाद भी उसका मन अशांत रहता है। कैद किए जाने के पूर्व डांटेज की मंगेतर मर्सिडीज़ के साथ तो डांटेज के बदले के चलते सबसे बुरा होता है. उसके पति से तो डांटेज बदला ले लेता है लेकिन उस औरत का संसार पूरी तरह से बिखर जाता है जबकी उसने तो कोई पाप नही किया था. बस वो अपने जवान बेटे के लिए डांटेज से जीवनदान अवश्य मांग लेती है और उसी बेटे की खुशहाली के लिए भगवान् से दुआ मांगने के अलावा उसके अपने जीवन में और कुछ शेष नही बचता. डांटेज को भी इस बात का एहसास हो जाता है कि बदला लेते समय कई मासूम लोग आटे के साथ घुन की भाँती पिस जाते हैं. अंत में डांटेज को भी तभी खुशी मिलती है जब उसे एक खूबसूरत मासूम लड़की का प्यार मिल जाता है. (पुरूष प्रधान समाज में वह तो अपने से आधी उम्र की लड़की से शादी कर सकता है लेकिन "कलंकित" मर्सिडीज़ के लिए तो ऎसी कोई आशा नही है.)

न जाने क्यों बदला लेने को मानव समाज में - और ख़ास तौर पर आधुनिक भारतीय समाज में - संवेदना की दृष्टि से देखा जाता है. अगर फिल्मों की मान कर चलें तो बदला लेना न्याय और शूरवीरता का प्रतीक है. परन्तु ऐसा नही है. अगर हर व्यक्ती किसी-न-किसी "अपराध" का बदला लेने निकल पड़ेगा तो अराजकता एवं गुंडाराज फ़ैल जाएंगे. आख़िर हममे से ऐसा कौन है जिसके साथ कभी न कभी किसी प्रकार का अन्याय या धोखा न हुआ हो? हाँ, ये सच है की सभ्य समाज के नियमों, शिष्टाचार के बंधनों और जिंदगी की दौड़-धुप में समय की कमी के चलते आम लोग बदला लेने नही निकलते. कुछ प्रतिशत सज्जन जीव मन में भी आक्रोष या कड़वाहट नही रखते. अधिकाँश लोग मन ही मन कुढ़ते रहते हैं; अपने नजदीकी मित्रों या सगे-सम्बन्धियों से अपना दुःख बाँट कर मन हल्का करने के बाद भी मन में कड़वाहट जिंदा रखते हैं. मजबूरी वाली परिस्थितियों में चेहरे पर दिखावे कि मुस्कराहट लाने में भी कामयाब हो जाते हैं. बुद्धिजीवी तुच्छ तरीकों से तुच्छतम बातों के बदले ले लिया करते हैं. (उदाहरण के लिए अध्यापकगण कांफ्रेंसों और सम्मेलनों में अपने "दुश्मनों" की बात काटकर और उन्हें नीचा दिखाकर मन को तसल्ली दे लेते हैं.)

पर मेरे मन में यह बात कहीं ज्यादा संजीदा है. हमारे देश में और दुनिया के तकरीबन सभी देशों में क़ानून की किताब में भी एक प्रावधान है "प्रोवोकेशन" का - यानी अगर आपको उकसाया जाय तो आपको खून करने की भी सज़ा कम मिलेगी या कुछ हालात में तो पूरी माफ़ी तक मिल सकती है. मैं इसके बिल्कुल ख़िलाफ़ हूँ. क्या मात्र उकसाया जाना बदला लेने के लिए काफ़ी है? यानी दुनिया भर में बदला लेने के प्रति संवेदना है. मैं तो कहूंगी की चाहे कितना भी बड़ा जुर्म हो, बदला उससे भी बड़ा जुर्म है. इससे न तो किसी को इन्साफ मिलता है और न ही समाज सुधार होता है. अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायें, विरोध करें लेकिन अगर विफल रहें तो हम इन्साफ बांटने की तलवार अपने हाथ में न उठाएं. इस बात से ही मन को संतुष्ट कर लें की हमने कोशिश की थी, बाकी हमारे बस में नही.
जानती हूँ कि यह कहना आसान है, करना बहुत जटिल. परन्तु चिंता का विषय तो यह है कि हम बदले को कोई बहुत बुरी चीज़ समझते ही नही. लेकिन सत्य यही है की बदला लेना ग़लत है, अपने अप्प में एक अपराध है. अगर हम इस बात को केवल सच्चे मन से स्वीकार कर लें और हृदयंगम कर लें, तो ये आत्मविकास लिए सही दिशा में एक बहुत बड़ा कदम होगा. और धीरे-धीरे बदले कि भावना को अपराध मानना समाज कि वास्तविकता भी बन जायेगी.


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सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

ब्लॉग लिखने के कुछ नियम


ये ब्लॉग न तो दुनिया को कोई संदेश देने के लिए है और न ही अपनी लेखनी की उदात्तता दर्शाने के लिए बल्कि इसका एक सहज सा उद्देश्य है - मेरे द्वारा हिन्दी भाषा का प्रयोग। तो किस विषय पर लिखा जाय यह तय करना थोड़ा कठिन है। उचित यही होगा की कुछ नियम बना लिए जाएँ जिससे की लिखना बरकरार रहे। अभी जो नियम सोच पायी हूँ, वे हैं:
१) हर पोस्ट में कम से कम दस वाक्य होने चाहिए।

२) पिछली पोस्ट में लिखे गए किसी शब्द या विचार को अगली पोस्ट का विषय बनाओ। उदाहरण के लिए अपनी सबसे पहली पोस्ट में मैंने कहा की कुछ न करने से थोड़ा ही करना अच्छा है और फिर अगली पोस्ट में Slumdog Millionaire की चर्चा की जिसकी सब तो नही लेकिन कुछ बातें अच्छी लगी। इसी प्रकार अब अगली पोस्ट में Slumdog वाली पोस्ट में से कोई विचार उठाना है। यह कुछ-कुछ अन्ताक्षरी के खेल जैसा है; बस आखरी अक्षर से शुरुआत करने की आवश्यकता नही है।
३) हर नई पोस्ट में पिछली पोस्टों से जो नए शब्द सीखने को मिले, उनका प्रयोग करने की चेष्टा अवश्य करनी है।
४) जबरन कठिन शब्द नही घुसाने कि अगले दिन स्वयं को ही मतलब समझ न आए!
५) ज्यादा अच्छा करने कीकोशिश में सोचने में वक्त बरबाद नही करना।


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रविवार, 15 फ़रवरी 2009

Slumdog Millionaire - Mumbai के एक व्यक्ति की कहानी


मुझे ये फ़िल्म कुछ बहुत ज़्यादा अच्छी तो नही लगी लेकिन कमाल की बात तो यह है कि इसके पीछे तकरीबन झगडा ही कर बैठी थी। सच तो यह है की फ़िल्म में कुछ कलात्मक खामियां हैं पर फिर भी अच्छी लगी। दो बड़ी खामियां हैं। एक तो हिन्दी और अंग्रेजी का अनुचित मिश्रण। जब हिन्दी का इस्तेमाल किया ही था, तो अच्छे से करते -- पुलिसवालों को अंग्रेजी बोलते हुए दिखाने की क्या ज़रूरत थी और मुख्या पात्रों को भी ? वरना पूरी ही फ़िल्म अंग्रेज़ी में बनाते। ये तो ऐसा है जैसे "effect" के लिए थोड़ी-थोड़ी हिन्दी से सजावट कर दी। दूसरी बड़ी खामी है

"आर्ट" सिनेमा और हिन्दी कॉमर्शियल सिनेमा की शैलियों का अनुचित मिश्रण। आर्ट फ़िल्म की तरह जल्दी- जल्दी सीन बदलते हैं और कम- से- कम dialogue का इस्तेमाल किया गया है यानी दर्शकों को ख़ुद अर्थ समझना है लेकिन "plot" है बिल्कुल बॉलीवुड या परी-कथा का। एक्सपेरिमेंट तो अच्छा है लेकिन ये दोनों का मिलन मुझे तो कुछ जमा नही। परन्तु यह सच है की मुझे जो चीज़ें खामियां लग रही हैं इन्ही "खूबियों" के कारण इस फ़िल्म को इतने सारे विदेशी पुरूस्कार मिले हैं।

तो फिर मुझे इस फ़िल्म में अच्छा क्या लगा? Character-development (बहुत कोशिश की सोचने की लेकिन इसकी हिन्दी नही सूझी) प्रत्येक पात्र बहुत बढ़िया ढंग से उभर के आता है। जमाल और सलीम भाई हैं लेकिन दोनों का अपनी परिस्थितियों से जून्झने का तरीका बचपन से ही बिल्कुल अलग अलग है। और सलीम कभी जमाल को समझ ही नही पाता. खेल खेल में जब सलीम जमाल को शौचालय में बंद कर देता है ताकि वो अमिताभ का हेलीकॉप्टर न देख सके, तो जमाल सिर्फ़ हेलीकॉप्टर को देखने में ही नही, बल्कि इतनी भीड़ में अमिताभ का औटोग्राफ लेने में भी कामयाब होकर ही दिखाता है। उसमे इतना जुनून है कि वो जो ठान ले वो तो करके ही रहता है। और वो भी गाँधीजी के तरीके से, न की किसी दूसरे को कोई नुकसान पहुँचाके। न तो वो किसी से धक्का मुक्की करता है, न सलीम को उसे बंद करने के लिए कोसता है, बल्कि स्वयं मल से भरे खड्डे में कूद जाता है। मैं तो उस सीन पर हंस हंस दोहरी हो गई जबकी मल के कीचड को देख के उलटी जैसा भी लग रहा था। बेचारी अम्मी उसे साबुन से रगड़ रगड़ कर नहलाती है और पूछती है की इतना भी क्या ज़रूरी था अमिताभ का औटोग्राफ। और सलीम भाईसाब मौका देखते ही औटोग्राफ वाली तस्वीर को कुछ सिक्कों के लिए बेच आते हैं, बिना अपने छोटे भाई के जज़्बातों की कदर किए। पूछे जाने पर सलीम का जवाब - "अच्छा दाम मिल रहा था इसलिए बेच दी" - दोनों बच्चों के व्यक्तित्व का अन्तर स्पष्ट कर देता है। सलीम इस ग़लतफैमी में है की पैसे से ही खुशी मिल सकती है परन्तु जमाल के लिए उस तस्वीर की कीमत सिक्कों में नही लगाई जा सकती।

दंगों में दौड़ते हुए मिलती है लतिका -- उसके सगे सम्बन्धी भी दंगों में मारे जा चुके हैं लेकिन सलीम मदद करने के मूड में नही है। अब अगर यह एक बॉलीवुड फ़िल्म होती तो लतिका अपनी पिछली ज़िन्दगी की कहानी रुआन्सू होकर सुनाती मगर यहाँ हमें सिर्फ़ एक संकेत भर ही मिलता है कि वो भी दंगों की ही पीड़ित है। सलीम मात्र एक "survivor" है जबकि जमाल ज़िन्दगी इंसानी ढंग से जीना चाहता है, सिर्फ़ जिंदा रहना काफ़ी नही। वो अपनी इंसानियत को कभी भी नही छोड़ता, चाहे ज़िन्दगी उस पर कितने ही ज़ुल्म ढाये। अत्याचार से लड़ने के लिए बन्दूक उठाना ज़रूरी नही। जावेद जैसे अंडरवर्ल्ड डॉन का चमचा बनने कि ज़रूरत नही। जमाल नटखट है मगर उसको मेहनत से परहेज़ नही। किस्मत भी उसका साथ इसलिए देती है क्योंकि वो चौकन्ना रहता है और मदद करने का जज्बा नही छोड़ता। अगर वो कॉल सेंटर के एक मुलाजिम कि मदद करने के लिए अपना काम छोड़ कुछ देर के लिए उसकी कुर्सी नही संभालता तो उसे अपने भाई को ढून्डने का मौका भी नही मिलता। और न ही कौन बनेगा करोड़पति में हिस्सा लेने का। अपनी गरीबी के बावजूद वो उस शो में सिर्फ़ पैसों के लिए हिस्सा नही लेता। जब पुलिस कि पिटाई सहने के बाद इरफान खान (इंसपेक्टर) कहता है कि पता नही क्यों लेकिन जमाल को शो से मिलने वाले पैसों कि चिंता नही लग रही, तो वो हामी भरते हुए बताता है कि उसने तो सिर्फ़ इसलिए शो में भाग लिया था ताकि लतिका जहाँ भी हो वो जमाल को टीवी पर देख ले। सलीम हर बार यह सोचता है कि जमाल हार मान लेगा और लतिका को भूल जायेगा लेकिन अंततः उसे भी विशवास हो जाता है कि जमाल कभी भी हार मानने वाला नही है और तब उसे एहसास होता है कि कहीं न कहीं भगवान् ज़रूर हैं। सलीम स्वीकार कर लेता है कि चाहे वो बड़ा भाई है मगर परिस्थितियों से लड़ने का तरीका उसके छोटे भाई का ही सही है। बन्दूक से या ज़बरदस्ती करने से पैसा और ताकत मिल सकते हैं, सच्ची खुशी नही।

पूरी फ़िल्म में जमाल कई बार कई लोगों के हाथों पिटाई सहता है परन्तु एक बार भी वो किसी पर हाथ उठाने कि न तो कोशिश करता है और न ही ऐसी कोई इच्छा रखता है। सबसे अच्छी बात है कि उसमे कभी बदले कि भावना नही आती। चाहे बॉलीवुड हो या हॉलीवुड, जाने कितनी ही फिल्मों में कहानी केवल इतनी ही होती है कि हीरो इंसाफ के नाम पर किसी बात का बदला लेने निकल पड़ता है। हाल ही में आई गजिनी फ़िल्म की भी बस इतनी ही कहानी थी। इस सन्दर्भ में Slumdog का संदेश काफ़ी बेहतर है। स्वयं पर भरोसा रख कर अगर अपनी मंशा पूरी करना चाहो तो वो नामुमकिन नही। अत्याचार से लड़ने के लिए ख़ुद अत्याचारी बनने कि ज़रूरत नही -- ये है इस फ़िल्म का संदेश जो मुझे अच्छा लगा।

फ़िल्म में कॉमेडी और व्यंग्य का भी अच्छा इस्तेमाल है। सबसे मजेदार था ताज महल का असल में 5 स्टार होटल होना जो कि शहंशाह की मौत के कारण पूरा न हो सका -- कमरे नही बन पाये लेकिन स्वीमिंग पूल सही समय पर पूरा हो गया। उससे भी बढ़िया था टूरिस्टों पर व्यंग्य जो कि रियल इंडिया देखना चाहते हैं और धोबी-घाट पर गाय भैंसों कि तस्वीरें निकाल रहे हैं। कटाक्ष तो तब कसा गया जब सौ डॉलर का नोट थमा कर अमरीकी टूरिस्ट कहती है कि, "Son, this is real America!" यानी पैसे के अलावा कुछ नही। अपने मन कि तसल्ली के लिए और ख़ुद अच्छा महसूस करने के लिए थमा दिए पैसे। पर उस बच्चे को पैसे नही इज्ज़त कि ज़िन्दगी चाहिए, प्यार चाहिए. वो पैसे उसके काम के नही, यह बात ज़ाहिर हो जाती है और वो उन पैसों को आगे दान में दे देता है -- ये है इस फ़िल्म के हीरो का दिल।

शायद इस फ़िल्म का सबसे आपत्तिजनक वाक्य था जमाल का कहना कि अगर राम और अल्लाह न होते तो उसकी माँ जिंदा होती। लेकिन जिस तरह से जमाल का व्यक्तितत्व उभर के आता है, उससे साफ़ ज़ाहिर है कि उसे ऊपरवाले से शिकायत नही, बल्कि धर्म के उन नुमाइंदों से है जो धर्म के नाम पर खून-खराबा तक कर डालते हैं। उसकी ज़िन्दगी देख कर तो सलीम को भी मानना पड़ता है कि "God is great"।

लतिका की भूमिका कुछ खास नही है -- एक टिपिकल अबला नारी से ज़्यादा कुछ नही. पर खैर, एक फ़िल्म में सब कुछ अच्छा नही हो सकता. "Visual effect" के लिए कई चीज़ें बढ़ा चढा कर दिखाई गई है। Overall, विदेशी फ़िल्म के हिसाब से ठीक-ठाक ही है (इन शब्दों कि हिन्दी भी पता करनी पड़ेगी)।

परन्तु सबसे ज़रूरी बात यह है कि यह केवल एक व्यक्ति - जमाल - की कहानी के रूप में उभर कर आई - पूरी मुंबई कि नही और पूरे भारतवर्ष की तो बिल्कुल ही नही। हाँ, जिस उपन्यास पर यह आधारित है, उसे ज़रूर पढ़ना चाहूंगी - शायद उसकी कहानी व पात्र बिल्कुल अलग हों। पढ़ना पड़ेगा।


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इस ब्लॉग के बारे में...

इस ब्लॉग के ज़रिये मैं अपनी हिंदी में सुधार लाना चाहती हूँ. आपसे अनुरोध है की अगर आपको मेरी भाषा, वर्तनी, व्याकरण, अभिव्यक्ति इत्यादि में कोई भी त्रुटि नज़र आए, तो मुझे अवश्य बताएँ और मेरा मार्गदर्शन करें. यहाँ पधारने का धन्यवाद!

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